इस्तंबूल – दो साल पहले असफल रहे सैनिकी की उठाव के बाद सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर देखे जाने वाले चुनाव में तुर्की के राष्ट्राध्यक्ष रेसेप तय्यीप एर्दोगन विजयी हुए है। एर्दोगन को ५२ प्रतिशत से अधिक वोट मिले जिससे यह विजय मतलब उनकी एकाधिकार पर मुहर लगाने के बराबर है। लगातार १५ सालों सत्ता पर रह चुके रेसेप एर्दोग ने इस नई जीत के साथ देश पर अपनी पकड और भी मजबूत की, लेकिन कुर्द समर्थक पार्टी भी १० प्रतिशत से अधिक वोटों समेत संसद में दाखिल होने से उनके लिए नया सिरदर्द साबित हो सकता है।
रविवार पहली बार तुर्की में राष्ट्राध्यक्ष और संसद के लिए एक साथ चुनाव हुआ। इस चुनाव के लिए तुर्की से साडे पाच करोड से अधिक मतदारों नें पंजीकृत किया था। रविवार को देश भर में ८८ प्रतिशत इतना रेकॉर्ड चुनाव होने का दावा स्थानिक चूनाव एजन्सी साथही सरकारी मिडीया ने किया था। चुनाव से पहले एर्दोगन के खिलाफ तुर्की में कुछ विरोधी गुटों ने एकता का आवाहन किया था। इस कारण एर्दोगन को इस बार का चुनाव भारी जाएगा, ऐसे संकेत दिए गए थे।
लेकिन वास्तव में एर्दोगन ने सहजता से बहूमत प्राप्त करने में यशस्वी रहे, ऐसा सोमवार को घोषित किए गए परिणामों से दिख रहा है। राष्ट्राध्यक्ष पद के लिए एर्दोगन को कडी चुनौती देनेवाले ‘मुहर्रम इन्स’ को ३० प्रतिशत से अधिक वोट मिले, जिसके बाद उन्होंने अपनी हार स्वीकार की है। लेकिन सोशल मिडिया और तुर्की के बाहेर की मिडिया से एर्दोगन की सफलता आसान नहीं ऐसे दावा किए जा रहे हैं। विरोधकों को प्रचार के लिए सहूलियत ना देना और खुली बातचित को विरोध करने जैसे दावपेच का इस्तेमाल करते हुए र्दोगन ने उनके खिलाफ जनमत तैयार होने नहीं दिया, ऐसा कहा जाता है।
तुर्की की वित्त व्यवस्था को पिछले कुछ महिनों से लगातार बैठ रहें झटके और विरोध को तोडने के लिए सुरक्षा दलों का बेहिसाब इस्तेमाल कर एर्दोगन ने उनके खिलाफ होनेवाली आलोचनाओं की धार बढ़ गई थी। साथही यूरोपीय महासंघ में तुर्की के शामिल होने की महत्वाकांक्षा अपूरी रहने पर एर्दोगन को निशाना बनाने की कोशिश जारी होती है। इस पृष्ठभूमी पर प्रचार के आखिरी पडाव में एर्दोगन ने ‘ऑटोमन साम्राज्य’ के पुनरुज्जीवन, इस्रायल और अमेरीका विरोधी नीति, सीरिया पर आक्रामक कार्रवाई और कुर्द जैसे मसलों पर जोर देते हुए तुर्की के मतदाताओं को बहकाने में सफल हुए, ऐसा माना जाता है।
राष्ट्राध्यक्ष और संसद जैसे दोनों जगह मिले विजय से एर्दोगन के देश पर पकड और भी मजबूत हुई, ऐसा कहा जाता है। पिछले वर्ष उन्हों ने राज्यघटना में बदलाव करते हुए प्रधानमंत्री पद निकालते हुए राष्ट्राध्यक्ष को अधिक अधिकार देने का निर्णय लिया था। इससे एर्दोगन की ताकत और भी बढ़ने का दावा किया जाता है। साथही कुर्द वंशियों के ‘एचडीपी’ इस पार्टी को ११ प्रतिशत से अधिक वोट मिलने से वो संसद की तिसरे क्रम की पार्टी बन चुकी है। यह घटना एर्दोगन के लिए पीडा देने वाली साबित हो सकती है, ऐसा विशेषज्ञों का दावा है।
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